ज़मीर मेरा पूछता है मुझसे
ए इंसाँ तू कहाँ है?
ऐसा तो नहीं था तू
जैसा की ये जहाँ हैं
क्यों खोया खोया रहता है
क्या तेरी दास्ताँ है
मुस्कुराहट तेरे चेहरे पर
चंद लम्हों की मेहमाँ है
है नज़रों में सैलाब सा
जो होता नहीं रवाँ है
है टूटा मेरा ख्वाब सा
और दिल मेरा विराँ है
हर पुर्ज़ा दिल का जोड़कर कर
बनाया फिर से एक गुलिस्तां है
हाँ नहीं था मैं ऐसा लेकिन....
अब यही मेरी पहचाँ है।
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